एक बार फिर से अपने सपनो का गला घोट के बना हुआ विष पी लेता हूं मैं और बन जाता हूं एक आदर्श और सभ्य नागरिक इस समाज का।
पर एक मन पूछता है क्यों।
क्यों बनना है आदर्श नागरिक?
क्यों संपूर्ण आज़ादी के मेरे हक को मांगने से घबराता हूं?
क्या ही होगा ज्यादा से ज्यादा? मारा जाऊंगा?
पर ऐसे घुट - घुट के जीने से तो अच्छा है खुल के मर जाना।
या खुदा दे मुझे हिम्मत और मुक्त करा मुझे इन बंधनों से। ताकी मैं खुद को जान सकूं।
Once again I drink the poison made by strangling my dreams and become an ideal and civilized citizen of this society.
But a part of my mind asks why.
Why do I want to become an ideal citizen?
Why am I afraid of demanding my right to complete freedom?
What will happen at the most? Will I be killed?
But it is better to die openly than to live in such a suffocated state.
Oh God, give me the courage and free me from these bonds. So that I can know myself better.
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